क्योंकि झूठ बोलना अब मुझे अच्छा नहीं लगता

हर वक़्त मुझसे मेरा ये दिल कहता है,
तुझे तेरी खुशियों से मिलवा दूँ,
क्या ये चाहत काफी है ?
या फिर तेरे खवाबों को, तेरे सपनों को,
हक़ीक़त बना कर, तुझसे मिलवा दूँ,
या ये मन्नत काफी है ?
तूने आसमान में, क्या कभी खुद को देखा है ?
मैंने रोज देखा है,
कभी चाँद की चांदनी में,
कभी तारों की झिलमिलाहट में ।
क्या तश्वीरें सिर्फ, यादों को सजोने के लिए होती हैं ?
पर मैं तो उनमें तुझको,
हमेशा साथ रखने के लिए देखता हूँ ।
तुझे पता है मेरी चाहत क्या थी ?
जमीन पर रहकर खुद को आसमान में देखने की,
तुझे अपना बना कर मैंने,
अपनी चाहत पूरी करली ।
तेरे होंठो को हँसते हुए जब भी देखता हूँ,
पता है कैसा लगता है ?
जैसे गुलाब का कोई फूल अपनी युवा अवस्था में,
दूसरों को महकाने को तैयार हो ।
मंदिर, मस्जिद, गुरद्वारों में,
जब लोगों की भीड़ देखता हूँ,
तो होंठो से हल्की सी हँसी छूट पड़ती है ।
ये सोचकर कि,
खुदा तो मेरे पास फिर वहां सब क्यों जाते हैं ।
शायद उनको प्यार का मतलब नहीं पता ।
आज मैं कह सकता हूँ,
कि मैं मुक़म्मल हो चूका हूँ ।
लेकिन ये मत पूछना कि मेरी दुआ क्या थी ।
क्योंकि झूठ बोलना अब मुझे अच्छा नहीं लगता ।

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