ढ़ह रही है धरती

ढ़ह रही है धरती
दह रहें हैं लोग
टूट-टूट कर छटक रही है
उम्मीदों की कोर

वर्षों पुरानी ईंटों का
रहा न कोई भोग
कँवल कठोर कलश कागज का
खिसक रहा है छोर

क्या उत्तर दें उन प्रश्नो का
जिसमे उलझा है उद्योग
यह कलयुग का काल कलंक है
या जग है आधुनिकता ओर ?

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